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अपा॒ङ्प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्य१॒॑न्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apāṅ prāṅ eti svadhayā gṛbhīto martyo martyenā sayoniḥ | tā śaśvantā viṣūcīnā viyantā ny anyaṁ cikyur na ni cikyur anyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अपा॑ङ्। प्राङ्। ए॒ति॒। स्व॒धया॑। गृ॒भी॒तः। अम॑र्त्यः। मर्त्ये॑न। सऽयो॑निः। ता। शश्व॑न्ता। वि॒षू॒चीना॑। वि॒ऽयन्ता॑। नि। अ॒न्यम्। चि॒क्युः। न। नि। चि॒क्युः॒। अ॒न्यम् ॥ १.१६४.३८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:38 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:38


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (स्वधया) जल आदि पदार्थों के साथ वर्त्तमान (अपाङ्) उलटा (प्राङ्) सीधा (एति) प्राप्त होता है और जो (गृभीतः) ग्रहण किया हुआ (अमर्त्यः) मरणधर्मरहित जीव (मर्त्येन) मरणधर्मरहित शरीरादि के साथ (सयोनिः) एक स्थानवाला हो रहा है (ता) वे दोनों (शश्वन्ता) सनातन (विषूचीना) सर्वत्र जाने और (वियन्ता) नाना प्रकार से प्राप्त होनेवाले वर्त्तमान हैं उनमें से उस (अन्यम्) एक जीव और शरीर आदि को विद्वान् जन (नि, चिक्युः) निरन्तर जानते और अविद्वान् (अन्यम्) उस एक को (न, नि, चिक्युः) वैसा नहीं जानते ॥ ३८ ॥
भावार्थभाषाः - इस जगत् में दो पदार्थ वर्त्तमान हैं एक जड़ दूसरा चेतन। उनमें जड़ और को और अपने रूप को नहीं जानता और चेतन अपने को और दूसरे को जानता है। दोनों अनुत्पन्न अनादि और विनाशरहित वर्त्तमान हैं। जड़ अर्थात् शरीरादि परमाणुओं के संयोग से स्थूलावस्था को प्राप्त हुआ चेतन जीव संयोग वा वियोग से अपने रूप को नहीं छोड़ता किन्तु स्थूल वा सूक्ष्म पदार्थ के संयोग से स्थूल वा सूक्ष्म सा भान होता है परन्तु वह एकतार स्थित जैसा है वैसा ही ठहरता है ॥ ३८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेणोक्तविषयमाह ।

अन्वय:

यः स्वधयापाङ् प्राङेति यो गृभीतो अमर्त्यो मर्त्येन सयोनिरस्ति ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता वर्त्तेते तमन्यं विद्वांसो निचिक्युरविद्वांसश्चान्यं न निचिक्युः ॥ ३८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपाङ्) अपाञ्चतीति (प्राङ्) प्रकृष्टमञ्चतीति (एति) प्राप्नोति (स्वधया) जलादिना सह वर्त्तमानः। स्वधेत्युदकना०। निघं० १। १२। स्वधेत्यन्नना०। निघं० २। ७। (गृभीतः) गृहीतः (अमर्त्यः) मरणधर्मरहितो जीवः (मर्त्येन) मरणधर्मरहितेन शरीरादिना। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (सयोनिः) समानस्थानः (ता) तौ मर्त्यामर्त्यौ जडचेतनौ (शश्वन्ता) सनातनौ (विषूचीना) विष्वगञ्चितारौ (वियन्ता) विविधान् प्राप्नुवन्तौ (नि) (अन्यम्) (चिक्युः) चिनुयुः (न) (नि) (चिक्युः) (अन्यम्) ॥ ३८ ॥
भावार्थभाषाः - अस्मिञ्जगति द्वौ पदार्थौ वर्तेते जडश्चेतनश्च तयोर्जडोऽन्यं स्वस्वरूपञ्च न जानाति चेतनाश्चाऽन्यं स्वस्वरूपञ्च जानाति द्वावनुत्पन्नावनादी अविनाशिनौ च वर्त्तेते, जडसंयोगेन स्थूलावस्थां प्राप्तश्चेतनो जीवः संयोगेन वियोगेन च स्वरूपं न जहाति किन्तु स्थूलसूक्ष्मयोगे स्थूलसूक्ष्म इव विभाति कूटस्थः सन् यादृशोऽस्ति तादृश एव तिष्ठति ॥ ३८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात दोन पदार्थ विद्यमान आहेत. एक जड व दुसरा चेतन, त्यापैकी जड इतरांना व आपल्या रूपाला जाणू शकत नाही. चेतन स्वस्वरूपाला व इतरांच्या स्वरूपाला जाणतो. दोन्ही अनुत्पन्न, अनादी व विनाशरहित आहेत. चेतन जीवाला जड अर्थात शरीर इत्यादी परमाणूच्या संयोगाने स्थूलावस्था प्राप्त होते. संयोग वियोगाने तो आपल्या मूळ रूपाला सोडत नाही, तर स्थूल किंवा सूक्ष्म पदार्थांच्या संयोगाने स्थूल किंवा सूक्ष्म वाटतो; परंतु तो अपरिवर्तनीय, सदैव एकसारखाच असतो. ॥ ३८ ॥